उत्तराखंड

यहां दिवाली के एक माह बाद मनाई जाती है पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली, जानिए क्या है परंपरा

पूरे देशभर में दिवाली 2023 का पर्व पूरे हर्ष और उल्लास के साथ मनाया गया, लेकिन अगर कोई किसी कारणवश इस दिवाली को नहीं मना पाया या फिर वो दोबारे से दीपावली का त्योहार मनाना चाहता है तो वो उत्तराखंड के जौनसार बावर का रुख कर सकता है। जी हां, देशभर में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए विख्यात जौनसार-बावर में देश की दीवाली के एक माह बाद पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। बूढ़ी दिवाली में पारंपरिक लोक संस्कृति का समागम देखने को मिलता है।

 जौनसार बावर में दिया जाता है इको फ्रैंडली दीवाली मनाने का संदेश

दरअसल, देहरादून जिले के जौनसार बावर जनजाति क्षेत्र में पौराणिक परंपरा आज भी जिंदा है। जहां पर देश दुनिया की दीपावली से अलग हटकर एक महीने बाद दीपावली का पर्व मनाया जाता है। जिसे ‘बूढ़ी दिवाली’ कहा जाता है। दीपावली पर जहां देश और दुनिया पटाखे के शोर शराबे के बीच दिवाली मनाई जाती है तो वहीं जौनसार बावर में ईको फ्रेंडली और परंपरागत तरीके से दिवाली मनाने की परंपरा है। हालांकि, क्षेत्र के करीब डेढ़ सौ से अधिक गांवों में देशवासियों के साथ नई दीवाली मनाने की शुरुआत भी कुछ सालों पहले हो चुकी है। पर अंदाज वही पुरानी इको फ्रैंडली दीवाली का ही है। इस दौरान न पटाखे का शोरगुल और न ही आतिशबाजी देखने को मिलती है। यहां की दीवाली पूरे देश को प्रदूषणरहित दीवाली मनाने का संदेश भी देती है। इस त्योहार में मेहमानों को विशेष व्यंजन चिउड़ा और मीठी रोटी गुड़ोई परोसी जाती है। इस दिवाली को क्षेत्र में कई जगहों पर बूढ़ दवैली, बूढ़ी दिआऊड़ी, दयाउली कहा जाता है। इस दिवाली में हिस्सा लेने के लिए दूरदराज में बसे लोग भी अपने गांव में लौटते हैं।

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पारंपरिक वेशभूषा में मशाल जलाकर मनाई जाती है दिवाली

जौनसार बावर में यही बूढ़ी दीपावली पांच दिनों तक मनाई जाती है। पांच दिन तक चलने वाली इस दीवाली के पहले दिन सुबह के समय नादरीदियावी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर छोटे बच्चे भिमल की लकड़ी लेकर होल्लारे जलाते हैं। जिसके बाद शाम के समय औंस पर्व मनाया जाता है। जिसमें बड़े बुजुर्ग भी होल्लारे लेकर नाचते हैं। गांव स्थित थारी यानि देव स्थान की पूजा होती है। दूसरे दिन भिरुड़ी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर गांव स्याणा ठारी के ऊपर बैठकर अखरोट फेंकता है। जिसे देव प्रसाद माना जाता है। तीसरे और चौथे दिन साजे पर्व मनाया जाता है। जिसके घर-घर में दावतों का दौर चलता है। पांचवे दिन हरिण पर्व मनाया जाता है। जिसमें एक काठ का हाथी तैयार किया जाता है। जिसके ऊपर बैठक कर गांव स्याणा करतब दिखाता है। इस दौरान ग्रामीण पारंपरिक वेशभूषा में सज धज कर गांव के पंचायती आंगन या खलिहान में एकत्रित होते हैं और ढोल दमाऊ की थाप पर मशालें जलाते हैं और रासो तांदी, झैंता, हारुल आदि नृत्य करते हैं।

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क्यों मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

बता दें कि जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में आता है। यहां बूढ़ी दिवाली मुख्य दीपावली के ठीक एक महीने के बाद धूमधाम से मनाई जाती है। बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे भी लोगों के कई तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बुजुर्ग बताते हैं कि पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने की सूचना देर से मिली। जिस कारण यहां के लोग एक महीने बाद बूढ़ी दीवाली मनाते हैं। वहीं, कई लोगों का मानना है कि जौनसार बावर कृषि प्रधान क्षेत्र है। जिस वजह से यहां लोग खेती बाड़ी के कामकाज में काफी ज्यादा व्यस्त रहते हैं। ऐसे में यहां लोग ठीक एक महीने बाद बूढ़ी दीवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। ग्रामीणों की मानें दीपावली पर फसलें तैयार होती है। ऐसे में ग्रामीणों को सय पर अपनी फसलों को काटना होता था। साथ ही सर्दियों से पहले सभी कामों को निपटाना होता था. ग्रामीण जब खेती बाड़ी आदि के काम पूरा कर लेते थे, तब वो दीपावली का पर्व मनाते थे। यह परंपरा आज भी कायम है। ग्रामीण आज भी दीपावली के ठीक एक महीने के बाद 5 दिवसीय बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। बूढ़ी दीपावली या दिवाली पर जौनसार बावर का हर गांव गुलजार रहता है। इस दिवाली पर प्रवासी लोग भी अपने घर और गांव लौटते हैं। जिसकी वजह से पूरे जौनसार बावर में अलग ही रौनक देखने को मिलती है।

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