Happy Teachers Day। यदि शिक्षा और शिक्षण को उत्कृष्टता की बुलंदी पर ले जाना है तो इस बात में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि ‘टीचिंग इज़ अ मिशन विद पैशन’ अर्थात अध्यापन एक अभियान है जिसमें जुनून की आवश्यकता होती है। बगैर जुनून के सफल अध्यापक बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती। सरकार व समाज द्वारा अध्यापक को पुरस्कृत व सम्मानित करना ज़रूर एक शुभ संकेत है, परंतु व्यवस्था के चलते ये ज़रूरी नहीं कि किसी अध्यापक की योग्यता व कर्मठता का पैमाना अध्यापक दिवस पर मिलने वाला ईनाम है क्योंकि सफल व आदर्श अध्यापक का उद्देश्य कदाचित भी ईनाम हासिल करना नहीं हो सकता।
अध्यापन की राह में ईनाम मिले या न मिले, यह आदर्श अध्यापक के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण उसकी व्यवसाय के प्रति कर्मठता, निष्ठा व ज़ज़्बा है। इस बात पर दो राय नहीं हो सकती कि समय की गति के साथ अध्यापक की छवि का लगातार क्षरण हुआ है, परंतु इस बात को नहीं झुठलाया जा सकता कि आज भी कर्मठ व कत्र्तव्यनिष्ठ अध्यापक की समाज कद्र व सम्मान करता है। जब कभी कोई व्यक्ति जीवन में बड़ी सफलता या उपलब्धि प्राप्त करता है, तो हर किसी के मन में ये सवाल ज़रूर उठता है कि उसने किस स्कूल से शिक्षा हासिल की है
इस सवाल के पीछे आशय ये होता है कि जिस स्कूल से उसने शिक्षा प्राप्त की है, उस स्कूल के शिक्षक बेहतर रहे होंगे। सरकारें स्कूल की बेहतर इमारतें तैयार कर सकती हैं, परंतु बेहतर स्कूल बेहतर शिक्षक ही बनाते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, नेता, अभिनेता, चिकित्सक, कानूनवेता, अधिवक्ता, वक्ता, प्रवक्ता, अध्यापक, प्राध्यापक, व्यापारी, समाजसेवी, कोई भी हो, कितना भी महान हो और कितने ही ऊंचे पद पर आसीन हो, इन सभी की सफलता के सफर का आगाज़ किसी विद्यालय के कक्ष से आरंभ होता है जहां शिक्षक नाम के किसी प्राणी ने इन्हें ज्ञान की रौशनी दी। किसी व्यक्ति के शून्य से शिखर तक, सडक़ से संसद तक व छोटे से घर से महलों तक के सफर की सीढ़ी उसी कक्षा के कमरे में उस अध्यापक ने तैयार की होती है, जो उसकी छुपी हुई प्रतिभाओं को उभार कर निखारता है। तभी महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है, ‘जो बच्चे को बेहतर शिक्षा देता है, उनका सम्मान उनसे भी ज़्यादा होना चाहिए, जिन्होंने उन्हें पैदा किया है।’ शिष्य की उपलब्धि व क्षमता से अक्सर पता चलता है कि गुरु कितना काबिल है। देश की दशा और दिशा इस बात पर निर्भर करती है कि वहां के नागरिकों का शैक्षणिक व नैतिक स्तर कैसा है।
यही कारण है जब-जब भी समाज में विकृतियां या बुराइयां आती हैं या जब-जब भी देश में व्यक्तित्व, ईमानदारी व नैतिक मूल्यों के क्षरण का सवाल उठता है, तब-तब हर किसी की नजऱ अनायास ही देश की शैक्षणिक व्यवस्था व शिक्षक की ओर जाती है। जब राजा धनानंद ने चाणक्य को भिक्षा मांगने वाला साधारण ब्राहमण कह ज़लील कर उसे अपने दरबार से खदेड़ दिया था, तो उसने कहा था, ‘अध्यापक कभी साधारण नहीं होता। निर्माण और विध्वंस उसकी गोद में खेलते हैं।’ चाणक्य ने अपने इस कथन को सिद्ध भी कर दिखाया था। उसने एक हकीर से बालक चंद्रगुप्त को सुशिक्षित किया और नंद वंश का विध्वंस कर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया था। बेहतर मुल्क के लिए बेहतर तालीम का होना लाज़मी है और बेहतर तालीम के लिए बेहतर शिक्षक लाज़मी है। वक्त के बहते दरिया के साथ शिक्षा भी बदली, इसके आयाम बदले, इसकी दिशा और दशा बदली। बदली स्थितियों में शिक्षक का मूल्यांकन फिर होगा।
गुरु से ही मिलता है ज्ञान और अनुभव
शिक्षक उस नारियल की भांति होता है जो बाहर से कठोर होता है लेकिन अंदर से कोमल होता है। शिक्षक एक ऐसा नाम जिस नाम में ही शिक्षा-शिक्षण व ज्ञान का बोध होने लगता है। एक शिक्षक वह होता है जो अपने शिष्य को जिंदगी की हर चुनौती से लडऩे का साहस, जुनून व जोश भरता है, हर एक छोटे से बड़े ज्ञान की शिक्षा देता है। शिक्षक मनुष्य का एक ऐसा रूप है जिसका व्याख्यान शब्दों में करने लगें तो शब्द कम पड़ जाएं। शिक्षक की महता को अनेक विद्वानों के मतों से समझने का प्रयास करें तो महान संत कबीरदास ने गुरु के महत्व का इस तरह से व्याख्यान किया है- ‘गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, का के लागु पाँव, बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय।’ अर्थात यदि भगवान और गुरु दोनों सामने खड़े हों तो मुझे गुरु के चरण पहले छूने चाहिए क्योंकि उसने ही ईश्वर का बोध करवाया है। गुरु का स्थान भगवान से भी ऊंचा है। प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य को अपना गुरु बनाकर ही राजा का पद पाया था। इतिहास में हर महान राजा का कोई न कोई गुरु जरूर था। गुरु और शिष्य का रिश्ता बहुत मधुर और गहरा होता है। गुरु ही वो इनसान है जो शिष्य को जीवन की हर मुश्किल से लडऩे का गुर सिखाता है।
शिक्षक की महिमा अपरंपार है : ‘सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज। सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुण लिखा न जाए।।’ अर्थात यदि पूरी धरती को लपेट कर कागज बना लू, सभी वनों के पेड़ों से कलम बना लू, सारे समुद्रों को मथकर स्याही बना लूं, फिर भी गुरु की महिमा को नही लिख पाऊंगा। मनु (ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक) ने विद्या को माता और गुरु को पिता बताया है। माता-पिता सिर्फ हमें जन्म देने का काम करते हैं, पर गुरु ही हमें ज्ञान दिलाता है, बिना ज्ञान के कोई भी व्यक्ति अपना सर्वोन्मुखी विकास नही कर सकता। कहा जाता है कि पढऩा तो किताबों से है, इन्हें तो बिना शिक्षक के भी पढ़ा जा सकता है, हां पढ़ा जा सकता है, लेकिन उस अध्ययन में केवल शब्द ही पढ़े जाएंगे, उनके पीछे छिपा ज्ञान व अनुभव केवल एक गुरु ही प्रदान कर सकता है। भारत प्राचीन समय से ही ज्ञान का केन्द्र व गुरुओं की तपोभूमि रही है। इसका उल्लेख आज भी इतिहास के पन्नों में मिल जाता है। गुरुकुलों का वो प्राचीन समय जहां बच्चों की शिक्षा-दीक्षा सम्पूर्ण होती थी और शिष्य गुरु से प्राप्त ज्ञान व अनुभव से आगामी जीवन के लिए कमर कसता था, गुरु के प्रति शिष्यों का आदर एक आदर्श स्तर पर रहता था जिसे आज के जीवन में नहीं मापा जा सकता। अक्सर एक व्यक्ति के जीवन में कई ऐसी शख्सियतें रहती हैं जो अपने ज्ञान से व्यक्ति को अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। जीवन में हर छोटी से बड़ी सीख देने वाला इनसान शिक्षक के सम्मान ही है और गुरु का काम यही है कि अपने शिक्षार्थी को तपाकर उसे एक आकार देकर भविष्य के लिए तैयार करे।
प्रो. मनोज डोगरा
लेखक हमीरपुर से हैं